दीवारें पूछती हैं..
कहाँ से आए हो दोस्त ?
दीपक जला के छोड़ गए थे जो..
बेहोश हो गया है..
टिमटिमाती लौ , कुछ कहते कह्ते..
हमेशा के लिये चुप हो गई..
धूल का इकरंग बिस्तर सजाए..
बैठे हैं हम तुम्हारे लिये..
इन बरसो मे कोई ना आया यहां..
सिवाय खिड़्की के एक छेद से..
आती है धूप कभी कभी..
और कभी गुजरती हवा भी कुछ देर ठहर कर जाती है ..
क्या ढूंढते हो ?
अच्छा ! वो सामने बंधा है..
कील पे टंगा वो दुपट्टा ..
और उसमे बंधा वो सिक्का...
खरीद लाए हो कितने लाख..
पर लगता है ...
ये सिक्का नहीं मिला कहीं..
कितने जिस्म मिल गए होंगे...
ये दुपट्टा नहीं मिला होगा कहीं...
कहाँ से आए हो दोस्त ?
दीपक जला के छोड़ गए थे जो..
बेहोश हो गया है..
टिमटिमाती लौ , कुछ कहते कह्ते..
हमेशा के लिये चुप हो गई..
धूल का इकरंग बिस्तर सजाए..
बैठे हैं हम तुम्हारे लिये..
इन बरसो मे कोई ना आया यहां..
सिवाय खिड़्की के एक छेद से..
आती है धूप कभी कभी..
और कभी गुजरती हवा भी कुछ देर ठहर कर जाती है ..
क्या ढूंढते हो ?
अच्छा ! वो सामने बंधा है..
कील पे टंगा वो दुपट्टा ..
और उसमे बंधा वो सिक्का...
खरीद लाए हो कितने लाख..
पर लगता है ...
ये सिक्का नहीं मिला कहीं..
कितने जिस्म मिल गए होंगे...
ये दुपट्टा नहीं मिला होगा कहीं...
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