Thursday, March 14, 2024

शायद!

शायद!
कप होंटों से लगाते हुए कहा उसने 
जब पूछा मैंने, 
ग्रुप डिलीट कर दिया तुमने?
ऐसी कई बातें थी उस ग्रुप में 
जो ग्रुप नहीं एक युग्म था
शायद!
काफी शायद!

Tuesday, March 12, 2024

आर्कियोलॉजी



बरनी, कलम, चिट्ठी और ख्याल 
हर रोज एक दराज़ खोलता हूं 
और कुछ निकल आता है 
एक पुरानी सभ्यता के 
अवशेष मिल रहे हों जैसे 
आवाज, इशारा, नज़रअंदाजी और चुप
अंदाजा लगाकार अंदाज़ा लगाता हूं 
और कुछ समझ आता है
एक बहुत पुरानी लिपि को 
डिकोड करना पड़ा हो जैसे  
कांच, दवात, शब्द और हंसी 
छोटे सा ब्रश पकड़कर बहुत 
एहतियात से हटाता रहता हूं धूल 
कुछ छूट गया है तो 
कोई वापिस लेने आएगा जैसे 



 

Thursday, March 4, 2021

1) जब तक तुम्हें देखा नहीं था मैंने कई प्रेम कविताएं लिखी
सभी में तुम्हारी आंखो का
और कुछ में बालों का जिक्र था
फिर एक दिन मैंने तुम्हें देखा
तुम्हारी आंखों में चश्मा और बालों में गार्नियर हेयर कलर था
फिर मैनें कभी कोई कविता नहीं लिखी !



2) इतने कदम चलने का कुछ कारण होगा इतना ही बोलने का भी. कुछ ना करने की जो वजह है,
कुछ करने की भी वजह वही है
स्नेह तर्कहीन नहीं बल्कि पैराडॉक्स है




Saturday, September 15, 2018

इक दखल है

इक दखल है
सिलवटों से बांधी इस अलसाई रात में
पलटना चादर पे।
ख़्वाब का लिखा, 
नींद तोड़ के बह जाता है ।
मैं पलटता तुम्हे ,
किसी सस्ते उपन्यास के खुरदुरे पन्ने सा
पर मेरा टच
किंडल की स्क्रीन सा अनरिस्पांसिव है ।
भीड़ को स्क्रॉल करो तो
इश्तिहार की तरह आतें हैं लोग
इसलिए
मैंने लिखा तुम्हे एक लव लेटर और
फाड़कर फैला दिए
तुम्हारी वेब हिस्टरी में
कैप्चा के ये टुकड़े।


Monday, January 15, 2018

धूप

तुम कपड़े सुखाने छत पे  जाना
साथ ले जाना चादरें और रजाई
मत ले जाना तकिया
नमकीन सी खुशबू , कब कौन पहचान ले
फर्स्ट फ्लोर पे रहने वाले
अगरबत्तियां जलाते हैं दिन में
रूह को सीलन लग गई है
पचमंजली ईमारत के तहखाने में रहते हुए
मैं इस मई घर जाऊँगा
और ले आऊंगा तुम्हारी छत के टुकड़े
मन पे रख लेना 
जिन पर धूप लगी
वहाँ उग आती है दूब
कुछ सेक लगे मन को शायद
और फूट पड़ें कुछ हजारी के फूल 
ढटुए ही सही | 

Saturday, October 28, 2017

जिन्हे उड़ाया करते थे प्लेन बनाके

जिन्हे उड़ाया करते थे प्लेन बनाके छत से
पुराने पैम्पलेट में छपे हुए छात्र संघ के नेता
मिलते हैं उड़ाते हुए अब किसी और की पतंगे
वो कैसा घर था की जिसमे पांचवीं मंजिल भी थी
और फिर एक आँगन भी मौजूद था

किसी रोज एक गुसलखाने की छत ही उठाकर बदल दिया था ठिकाना नलके का
लकड़ी की सीढ़ियों से फर्श की उलटी छत
एक धूल का फांक उठाती थी
मेरे कमरे की छत में नक्शा उकेरा हुआ है एक
सुन्दरबन के डेल्टा सा लगता है कुछ
नील के हाशिये के बीच में बहती लकीरों को
देख के कलाई की नसें भर आया करती हैं

वो जो सबसे ऊपर की मंजिल का कमरा है
हवाओं की सोहबत में बिगड़ा हुआ है
एक छोटी सी रसोई रहती है बगल में
जिसमे कोई अलमारी नही
पर कमी नहीं होती बिल्लियों को चूहे की
और एक झरोखा खुला हुआ है बगल में
जिसमे खुलती है पटालों की छतें
घर खुलता था छत पे
नीम्बू अचार और बड़ी पापड
हाथ बदलते रह्ते है
मीलों की छत पे
घर किसे छोड़ता है
हम ही बेवफा हुए
जो भी चला जाए अभी भी
कोठरी जाड़ों में गर्म रहती है
उस कोठरी की नींद में सपने आते हैं
शतरंज , गणित और कैरमबोर्ड के
कौन खेलता है ये नहीं दिखाई देता 

अलमोड़ा की जलेबी’



१) यूं  गुड़गुड़ाए बैठे हो महल्ले की छत में, दूर तक कोहरा निकलता है। 
हुक्के के हिस्से की सुबहें अब सिगरेट की खाक छानती हैं ।

२) ‘बरेली की बर्फ़ी’ सा कोई सस्ता उपन्यास लिखा कभी तो 
तुम्हारी क़सम उसका नाम ‘अलमोड़ा की जलेबी’ रखूँगा !

३) O मेट्रो में सीट पाने वालों 
बैठे रहो के हक़ है तुम्हारा 
पर जो ऐसे मेट्रो लाइन पैनल की ओर को घड़ी घड़ी देखते हो 
किसी को उम्मीद हो उठती है 
के तुम भी उठने वाले हो 
इसलिए डाल लो कानो में हेड्फ़ोन
और डूब जाओ यूटूब में
या गाना या सावन के शोर में
धँसा लो आँख किंडल की बिना led वाली स्क्रीन पर
और करो इंतज़ार
महाभारत के समय के उद्घोष का
अगला स्टेशन .......... है
दरवाज़े बाँयी तरफ़ खुलेंगे

४) कुछ कमाल है न ,
वो ख्याल ,वो जो बिना पूछे कर दिया जाता है|
 सफर में हूँ तो कोइ पूछे नहीं खाने के लिए , बताए भी नही के बना के रखा है 
कह देने से ,पूछ लेने से पता नहीं क्या कम हो जाता है | जैसे प्लास्टिक के फूल हो गए हों |