इक दखल है सिलवटों से बांधी इस अलसाई रात में पलटना चादर पे। ख़्वाब का लिखा, नींद तोड़ के बह जाता है । मैं पलटता तुम्हे , किसी सस्ते उपन्यास के खुरदुरे पन्ने सा पर मेरा टच किंडल की स्क्रीन सा अनरिस्पांसिव है । भीड़ को स्क्रॉल करो तो इश्तिहार की तरह आतें हैं लोग इसलिए मैंने लिखा तुम्हे एक लव लेटर और फाड़कर फैला दिए तुम्हारी वेब हिस्टरी में कैप्चा के ये टुकड़े।
तुम कपड़े सुखाने छत पे जाना
साथ ले जाना चादरें और रजाई
मत ले जाना तकिया
नमकीन सी खुशबू , कब कौन पहचान ले
फर्स्ट फ्लोर पे रहने वाले
अगरबत्तियां जलाते हैं दिन में
रूह को सीलन लग गई है
पचमंजली ईमारत के तहखाने में रहते हुए
मैं इस मई घर जाऊँगा
और ले आऊंगा तुम्हारी छत के टुकड़े
मन पे रख लेना
जिन पर धूप लगी
वहाँ उग आती है दूब
कुछ सेक लगे मन को शायद
और फूट पड़ें कुछ हजारी के फूल
ढटुए ही सही |
जिन्हे उड़ाया करते थे प्लेन बनाके छत से पुराने पैम्पलेट में छपे हुए छात्र संघ के नेता मिलते हैं उड़ाते हुए अब किसी और की पतंगे वो कैसा घर था की जिसमे पांचवीं मंजिल भी थी और फिर एक आँगन भी मौजूद था
किसी रोज एक गुसलखाने की छत ही उठाकर बदल दिया था ठिकाना नलके का लकड़ी की सीढ़ियों से फर्श की उलटी छत एक धूल का फांक उठाती थी मेरे कमरे की छत में नक्शा उकेरा हुआ है एक सुन्दरबन के डेल्टा सा लगता है कुछ नील के हाशिये के बीच में बहती लकीरों को देख के कलाई की नसें भर आया करती हैं
वो जो सबसे ऊपर की मंजिल का कमरा है
हवाओं की सोहबत में बिगड़ा हुआ है
एक छोटी सी रसोई रहती है बगल में
जिसमे कोई अलमारी नही
पर कमी नहीं होती बिल्लियों को चूहे की
और एक झरोखा खुला हुआ है बगल में
जिसमे खुलती है पटालों की छतें
घर खुलता था छत पे
नीम्बू अचार और बड़ी पापड
हाथ बदलते रह्ते है
मीलों की छत पे
घर किसे छोड़ता है
हम ही बेवफा हुए
जो भी चला जाए अभी भी
कोठरी जाड़ों में गर्म रहती है
उस कोठरी की नींद में सपने आते हैं
शतरंज , गणित और कैरमबोर्ड के
कौन खेलता है ये नहीं दिखाई देता
१) यूं गुड़गुड़ाए बैठे हो महल्ले की छत में, दूर तक कोहरा निकलता है। हुक्के के हिस्से की सुबहें अब सिगरेट की खाक छानती हैं । २) ‘बरेली की बर्फ़ी’ सा कोई सस्ता उपन्यास लिखा कभी तो तुम्हारी क़सम उसका नाम ‘अलमोड़ा की जलेबी’ रखूँगा ! ३) O मेट्रो में सीट पाने वालों बैठे रहो के हक़ है तुम्हारा पर जो ऐसे मेट्रो लाइन पैनल की ओर को घड़ी घड़ी देखते हो किसी को उम्मीद हो उठती है के तुम भी उठने वाले हो इसलिए डाल लो कानो में हेड्फ़ोन और डूब जाओ यूटूब में या गाना या सावन के शोर में धँसा लो आँख किंडल की बिना led वाली स्क्रीन पर और करो इंतज़ार महाभारत के समय के उद्घोष का अगला स्टेशन .......... है दरवाज़े बाँयी तरफ़ खुलेंगे
४) कुछ कमाल है न , वो ख्याल ,वो जो बिना पूछे कर दिया जाता है|
सफर में हूँ तो कोइ पूछे नहीं खाने के लिए , बताए भी नही के बना के रखा है कह देने से ,पूछ लेने से पता नहीं क्या कम हो जाता है | जैसे प्लास्टिक के फूल हो गए हों |